Artist - Omprakash Amritanshu
ग़ज़ल का एक अनुठा संग्रह है ‘चलो ! अब आदमी बना जाए’ । कैनवाश है रचनाकार सतीश कुमार श्रीवास्तव ‘नैतिक’ के अनुभवों का । चलो देखते हैं , जिसमें अनेक शब्दों की खींची गई लकीरें हैं। बना हुआ भावपूर्ण रंगो का प्रयोग भी भरपूर है। सिर्फ़ हवा-हवाई हीं नही, कवि धरातल से बातें कर रहा है। झूठ की दुनिया में सच कुछ भी नही जिसे लिखा जाए । संग्रह में हम सिर्फ़ समस्या से अवगत हीं नही होते । बना बनाया रिश्ते और सच्चाईयों से रूबरू भी है होते हैं। अपनी पीड़ाओं का एक-एक पल हमसे बाँट रहा है लेखक।लोकतंत्र के सियासी खेल और शहद लिपटे जुमलों से आज़ादी तलाशा जाए । संग्रह में लोक की पीड़ा और आम जनमानस की संवेदना है। एक तरफ दोगलेपन का विकृत रूप है आदमी । दूसरी ओर स्वार्थ की पेंच में फँसा आदमी का सिकुड़ता हुआ दायरा भी है। ‘चलो ! अब आदमी बना जाए’ लेखक की आंतरिक आवाज़ है । एक अपील है आदमीयत की।
“ ये आँखों वाले अंधे , ये कानों वाले बहरे
है मन काजल सरीखा , मगर चेहरे सुनहरे”
सत्ता के ओट में बैठे हुए लोग तिरंगा के ओट में कैसे-कैसे खेल खेला करते हैं । “ आग नफ़रत की लगी , जनतंत्र नंगा हो गया / संसद भवन के दाग से तिरंगा मैला हो गया ।” दंगे की आग पर राजनीति की रोटियाँ सेकने वाले का परम कतर्व्य होता है नफ़रत फैलाना । एक सुन्दर सा भाव देखें- ‘सुना है बेचकर आत्मा आती है सियासत है / सियासी हो गया जो कहाँ इंसा बचा होगा।’
ग़ज़ल हमें अगाह करता है कि शहद के भ्रम में ज़हर मत निगल जाना । यहाँ लोग अक्सर मिठे ज़ख़्म देते हैं । इनके सुनहरे चेहरे पर मत जाना ।
सियासत के ज़मीन पर चलने वाले लोग अंधे-बहरे होते हैं । यहाँ कवि कहना चाहता है- उन्होनें अपनी आत्मा बेच डाली । इंसानियत शुन्य है उनके अन्दर । वो दिल से नही अब दिमाग से काम लेते हैं । कुर्सी का खेल खेलते हैं । कुर्सी पाने की जुगाड़ तलासते रहते हैं । कुर्सी छोड़ इनका कोई अपना नही । ये सियासती इन्सान महाभारत में रूची रखते हैं ।
कवि कहता है कि यहाँ जज़्बात एक तपती हुई रेत है । नए अरमान – नए ख़्वाब सब जल जाते हैं । उम्मीद हवा बन कर उड़ जाती है । क्योंकि ये शहर है – “ नए अरमान नए ख़्वाब सजाकर आए / बड़ी उम्मीद से हम गाँव से शहर आए ।” कितने अरमानों के धुएँ से प्रदुषित है शहर । शहर की हर चीज़ खुबसूरत होती है ठीक वैसे हीं जैसे काग़ज़ के कलात्मक फूल । हर आदमी के पिछे खतरनाक सा जानवर का शक्ल है । जो आपनापन के मुखौटे में छिपा हुआ है ।
“ मुझे चेहरे से ज़्यादा आँख पढ़ लेने की आदत है
मैं वाक़िफ़ हूँ तु दिल हीं दिल में कितना टूटता होगा ।”
“ घूम -घूम कर देख लिया है , मैंने कोने -कोने को
कहीं वेदना की बोली है , कहीं दर्द की भाषा है ।”
अरमानों के ख़ाक पर खड़ा कवि देख रहा है । अपने दर्द को जितना बयान करो, ताली उतनी हीं मिलेगी महफ़िल में । बल्कि ताली बजाने वालों को नही मालूम कि आदमी टूटकर हीं शायर बना होगा । टुकड़े-टुकड़े में बँटा हुआ दर्द दिल को बंजर बना देता है । इन्हें आँखों की नदी से सींचने से क्या फ़ायदा ?
यह स्वार्थ की दुनिया है । अरमानों की ख़ाक है । दर्द की भाषा है । शायद यही तो जीवन की परिभाषा है । सब अपनी – अपनी बाजी खेल रहे हैं । मानवता नीलाम हो रही है । कवि के कैनवाश के रंगों में सजाया हुआ अरमान-ख़्वाब – दर्द विकृत हो चुका है। भूखा तो कोई प्यासा तड़प रहा है । हर आदमी के अन्दर तन्हाई है ।- “जिंदा है जिंदगी यहाँ मुर्दे की शक्ल में / चारों तरफ श्मशान की भरमार देखिए ।”
ऐसा नही कि कवि थका और ठगा सा महसूस कर रहा है । वह अपनी संवेदना से दो – चार बातें कर रहा है । कारण कि उसके ह्रदय का भाव प्रश्नवाचक चिन्हों से घिरा पड़ा है । सोंच रह है सिर्फ़ लिख देने से क्या मिलेगा ? उस रंग को और गहरा करने से क्या मिलेगा ? जिसमें पहले से हीं घना अँधेरा छाया हो । दिल में सुलगते संवेदनाओं को हवा देने से क्या मिलेगा ?
“ बहुत गंभीर लिखकर क्या मिलेगा / दूध को क्षीर लिखकर क्या मिलेगा ।” लगता है यहाँ अब कवि का मन हल्का होता है । शांत होता है । दिल में उठते हुए तुफान का वेग कम होता है । शायद इसलिए सरल सा भाव को सरलता से हीं रखना चाहता है । “ यहाँ तो आदमीयत घूँटती हीं रहेगी / उसे हसीं तक़दीर लिखकर क्या मिलेगा ? जद्दोजहद भरी जिदंगी को विषैला तीर लिखकर क्या मिलेगा ?
वह संभावनाओं की ज़मीन तलाश रहा है । उज्जवल भविष्य की डोर से जनमानस को बँधना चाहता है । मुहब्बत से मुहब्बत का चित्रण करना चाहता है। अपने ह्रदय के अँधेरे को उजाला करना चाहता है। –
पहले ह्रदय की होलिका को आग लगा लूँ / फिर मन के हर इक भेद -भाव-पाप मिटा लूँ ।
एक अपील । एक ह्रदय को चीरने वाली पुकार कि चलो अब आदमी बना जाए । यहाँ कवि के कैनवास का रंग अत्यंत हीं तरल है । भाव द्रवित है । एक ओर याचना है तो दूसरी तरफ आदमी बने रहने की आवाज । दूसरे को काला करना आदमी की नीयत है क्योंकि खुद को सुनहरा भी था दिखाना है । वह परेशान है कि सुखा हुआ घाव हरा कर देते हैं लोग क्यों ? यहाँ छोटे – बड़े का भेद हीं क्यों है इतना ?
जहाँ जीत का स्वाद चखने के लिये आदमी के लाश पर झंडा फहराया जाता है । राजनीति का चक्रव्यूह में फँसा हुआ है जनमानस । जहर हीं जहर फैला है चारों तरफ क्योंकि यहाँ नफ़रत की हवा चल रही है । कारण तो एक हीं है जीत । हार का डर दिलों में दंगे की चिंगारी फैला देती है । इसलिए आदमी हीं आदमी को कुचलने को आतुर है । नैतिक कहते है-
एक चेहरे में कई चेहरे हैं
कैसे इन्सान को पढ़ा जाए ?
बन के बहुरूपिया रहे कब तक
चलो ! अब आदमी बना जाए ।
सतीश श्रीवास्तव के पहले ग़ज़ल संग्रह में समय की पकड़ है। पाठक से जुड़ने की सरलता है वैसे हीं जैसे एक पाठक को चाहिए । कवि निश्चित रूप से एक लंबी छलाँग लगाते हुए दिख रहा है । और आख़िर में 84 ग़ज़लों की संग्रह की आख़िरी पंक्ति कि-
ये वक़्त का करवट है ग़ौर कीजिए हुज़ूर
जिसको जलाए थे उसी का मसाल है ।
लेखक – सतिश कुमार श्रीवास्तव “ नैतिक”
प्रकाशक – नवजागरण प्रकाशन , नई दिल्ली
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ओमप्रकाश अमृतांशु
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wah opji kya khubsurat samiksha ki hai gazal ki.
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