Omprakash Amritanshu
देखऽ त केकरा घरे बंधात बा मकर संक्राति के तिलवा। दादी के नाक में साँस बनके समाईल गमक। तु हूँ काहे नईखु बांध देत? ई हमनी के परम्परा नु ह। तु हूँ बांध दिहतु त घूम-घूम के लईका खईतन सं नु। लागीत कि हमरो घरे परब-तेवहार आइल बा। दोसरा के लईकन के खाईल देखिेके लईका हहर जालन सं।लईकन के ना तरसावे के। एकनिये खातिर नू तेवहार आवेला। अब हमार देह चलता ? हम त पन्द्रह दिन पहिलहीं बांध के रख देत रहीं। तहरा लोग से सपरत नईखे। अब दू दिन रह गइल। काल्ह ना परसों नू ह। के दो कहत रहे कि अबकि बेर सकरात पन्द्रह तारिख के मनावल जाई। देह मिस रहल नातिन पतोह से कहली दादी।
दादी आपन समय के बड़ी फुरतीला महिला रही। बोलत बतिआवत सभ कम कर लेत रही। कवनो परब-तेवहार खुब हँसी-ख़ुशी से मनावत रही। मकर संक्रान्ति के तिलवा त पन्द्रह-बीस दिन पहिलहीं से बंधा जात रहे।आ हमनियो के खुब नाक डूबा-डूबा के खात रहीं जा। ऊ बड़का-बड़का तिलवा। दाँत बेचारा थाक जात रहे। जबड़ा जवाब देवे लागत रहे। बाकिर मन आख़िर ले ना भरत रहे।
अब पुरान हो गइली। उमिर ९० के पार पहूँचल बा। पुरनिया भइला पर हाथ-गोड़ कहाँ चलेला ? पहिले अकेले रहली। अब त पतोह-नतिन पतोह से भरल बा घर-आँगन। बोल-बोल के बस परब-तेवहार के ईयाद परावत रहेली। परम्परा निभावे के पाठ पढ़ावेली।
ऊ दिन भोर नईखे पड़ल। जब सबसे पहिले गुड़ के पाग कड़ाही में खदकत रहे। सउँसे घर-आँगन सोन्ह-सोन्ह गमक से गमके लागत रहे। आ दादी माई के पाग के बारे में बतावत-सिखावत रहली। गुड़ के पाग जबले अंगुरी पर चट-चट ना करे, तब तकले चूल्हा पर खदकत रहे। ओह समय पर लड़िकन के ओहिजा गइल मना रहे। दादी के तिलवा बनावे के विधि अनुसार ठिक वैसे हीं माईयो बनावत रहली। लेकिन दादी के हाथ के मज़ा कुछ आउरी रहे। शायद कुच कमी रह जात रहे माई के हाथ में।
हं करिआवा तिल के लड्डू माई के हाथ से बड़ी बढ़िया लागत रहे। एकरो के गुड़ के पाग में हीं बनावल जात रहे। करिआवा तिल के लड्डू गुड़े में बनेला त आच्छा लागेला।
मकर संक्रात में तिलवा बनावे के एगो परम्परा रहे।घरे-घरे तिलवा बांधात रहे। पन्द्रह-बीस दिन पहिले से गाँव-घर-बाज़ार गमके लागत रहे। बिआहल बेटी के घरे भेजल जात रहे तिलवा आ नयका चाउर के चुड़ा। नया पतोह नईहर में बाड़ी त ओहिजे सक्रांत के समाग्री भेजल जात रहे। कारण कि एक त परम्परा के निर्वाह आ दूसरा रिश्ता में मिठास बनावले रखेके प्रयास रहे।
भर मकर संक्रान्ति बाल-गोपालन के मन गद्-गद् रहत रहे। जईसे तिलवा के गमक लागल वैसे हीं मन में ऊछाह जागल। जबकि खेले के आगे लड़िकन के भूख-पिआस ना लागे। एकरा विपरीत तिलवा देखते भूख के भूत जाग जाला।
आज तिलवा के जगह घर में छोटी-छोटी तिलकुट ले लेले बा। मनई के दिल में परब-तेवहार के प्रति उत्सुकता पहिले जईसन नईखे रह गइल। कारण बा समय के कमी। परिणाम स्वरूप लोक मिठास में फिकापन आ रहल बा। संस्कृति के निबाह देखावटी हो चलल बा। एही से त सबकुछ बनावटी हो रहल बा।
ओमप्रकाश अमृतांशु
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