Artist-Omprakash Amritanshu
संघर्ष की उंगली पकड़कर एक छोटा बच्चा बार-बार खड़ा होना-चलना ओर बोलना सीखता है। और एक दिन इसी संघर्ष के सहारे वह जीवन पथ पर अपना पहला डेग बढ़ता है। फिर, धीरे-धीरे दौड़ाने लगता है। ठीक ऐसा ही था दादा साहेब फाल्के का संघर्ष धुन और भारतीय सिनेमा की दुनिया की गाथा। कभी संघर्ष को पटकनी दी तो कभी संघर्ष ने इन्हें दबोचा। लेकिन हार मानना तो शायद इनके शब्द-कोष में था ही नही। अपने संघर्षीय धुन के सहारे भारतीय सिनेमा को गढ़ना शुरू किया तो रुके नही। और , जब रुके तो दुनिया देखती रह गई। आश्चर्य भरी नजरों से सभी देखने लगे प्रथम भारतीय फिल्म। जिसे एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति अपने परिश्रम की मिट्टी से गढ़ा। भारतीय सिनेमा के जनक थे दादा साहब फाल्के ।
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तभी तो भारतीय चलचित्र का जनक ओर पितामह भी कहा जाता है दादा साहेब को। हमें एक नई दुनिया मिली सिनेमा की दुनिया। जिसमें मस्ती है। भक्ति है। संगीत है।आंनद है। मनोरंजन का भरपूर मसाला भी है। संघर्ष की धुन ऐसी की अपने जेवर भी गिरवी रखने पड़े। और तो और पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी भी गिरवी रखकर ऊंची व्याज दर पर कर्ज लिया। आत्मविश्वास और मजबूत इरादे हो तो इंसान के लिए कोई भी मंज़िल दूर नही।
सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से सृजनशील कलाकार बनकर निकले। कुछ दिन बाद फिल्मों के सृजन कार्य मे तन – मन- और धन लगा दिया। वे मंच के अनुभवी अभिनेता के साथ-साथ शौकिया रूप से जादूगरी भी किया करते थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी की शिक्षा भी ली।यहाँ उन्होंने मूर्तिकला, इंजीनियरिंग , ड्राइंग – पेंटिंग और फोटोग्राफी की कला में महारत हासिल की।कुछ दिन प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ भी काम किया।
फोटो केमिकल प्रिंटिंग में काफी प्रयोग भी किये। प्रिंटिंग का कारोबार साझा में चल रहा था। 1910 में साझेदारी टूटी और कमाल हुआ।
कहा जाता है जो होता है अच्छे के लिए हीं होता है। हालांकि उस समय उनका स्वभाव में थोड़ा चिड़चिड़ापन आ गया था। जो स्वाभाविक है। उसी दौरान क्रिसमस के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फ़िल्म देखा। स्वयं जादूगर पर इस फ़िल्म का जादू इस तरह चढ़ा की दादासाहेब भी फिल्मी हो गये। अब उन्होंने ठान लिया कि कुछ नही मुझे सिर्फ फिल्मकार बनना है। कहा जाता है दिल से सोच गया काम उसी समय आधा हो चुका होता है। सिर्फ आधे के लिए संघर्ष करनी पड़ती है। उनके पास दूर की सोंच थी। हुनर था। नए-नए प्रयोग करने में माहिर भी थे। जो कार्य असंभव था दादासाहेब ने संभव कर दिखाया और बन गये प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने वाले पहले व्यकित।
पांच पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदकर सिनेमाघरों में जा-जाकर अध्ययन करने लगे। कठिन परिश्रम से कभी मुँह नही मोड़ा। यहाँ तक कि इसके लिए वे लगातार बीस-बीस घण्टे तक काम करते रहे। प्रयोग करते रहे। दादासाहेब को इस संघर्ष में अपनी एक आंख भी गवानी पड़ी। लेकिन संघर्ष की धुन ह्रदय में एक बार बजी तो , फिर बजती ही रही । वे अब पीछे मुड़कर देखना नही चाहते थे। अब उन्हें उनकी पत्नी का साथ मिला। अपने मित्र तो आलोचक हीं बने रहे। वैसे आलोचक हमेशा मित्र और परिवार के लोग हीं होते हैं। इस प्रकार दादासाहेब ने हर चुनौती को स्वीकार किया।
अपने हुनर को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर के दाने को बोया। जैसे-जैसे पौधा बढ़ता रहा वैसे-वैसे हर दिन का फोटोग्राफी कर फ्रेम बनाते रहे। इसके लिए उन्होंने टाइमैपस फोटकग्राफी तकनीक का इस्तेमाल किया। इस तरह दादासाहेब समय-अमय पर अपने संघर्ष का खुद ही समीक्षा करते रहे।
फ़िल्म प्रोडक्शन में क्रैश-कोर्स करने के लिये 1912 में इंग्लैण्ड गए। वहाँ सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा।वहां से लौटकर आये तो ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के कहानी पर फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गए। उस दौरान फ़िल्म बनाने के लिए कोई भी चीज उपलब्ध नही थी।
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wah kya khub likha h opji…..
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