Artist - Omprakash Amritanshu
कान से मोबाईल हटाते हुए अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा – ‘ अर्थात मैं भी बेरोजगार !कोरोना और लॉकडाउन की ऐसी पड़ी मार । हाथ से निकला रोज़गार ।’ यह व्यंग्य वाण स्वयं मैंने अपने ऊपर चलाया था । जिसमें , आश्चर्य के भाव भी थोड़ा बहुत मिलाया था । डिजिटल इंडिया का प्रभाव सकारात्मक रहा । एक फोन ने तोड़ दिया नाता , जिससे मैं वर्षों से भावनात्मक रहा । घाव मेरे अपने है, जिसमें स्वाहा हुए अनेकों सपनें हैं । अर्थात् अपनी ज़ख्मों के जमीन पर फूटे हुए दर्द के अंकुर दिखा रहा हूँ । बड़े चाव से अपनी दुखद कहानी को व्यंगात्मक बना रहा हूँ । कि शायद इसकी लेप इस पीड़ादायक ज़ख़्म पर मरहम का काम करे । एक सकारात्मक ऊर्जा की परत सूरज स्वयं हमारे नाम करे ।
बहुत देर तक मोबाईल के द्वारा उस तरफ से आने वाली आवाज मेरे कानों में टकराती रही । उन शब्दों की गूंज मेरे कानों के रास्ते नस – नस को झंकृत करती रही । ये वो शब्द थे , जो किसी ब्रह्ममास्त्र से कम नहीं थे । लॉकडाउन की विषम परिस्थिति में बेरोजगार की बातें सम नहीं थे ।
बेरोज़गार की बात कानों में पड़ते एैसा महसूस हुआ जैसे धमनियों में दौड़ने वाले लाल रक्त कण तेजी से पानी के शक्ल ले रहे थे । चेहरे पर चमकने वाले रंग कभी नीले , तो कभी पीले पड़ रहे थे । एक सूखे हुए वृक्ष की तरह मैं यूं हीं खड़ा था । जो, बिना जड़ के फर्श पर गडा था । कुछ देर के लिए मेरे मस्तिष्क में शून्यता आ गई । आंखों पर काली अंधेरी रात छा गई । भविष्य की सोच में सहम रहा । मैं अपने बिस्तर पर औंधे मुंह धड़ाम से गिर पड़ा ।
शाम के करीब पौने पांच बज रहा था । आफिस टाईम समाप्त की ओर चल रहा था । मैंने आई पैड को चार्ज में लगाया । पीछे मुड़ते ही मोबाईल का रिंग टोन अपने तरफ बुलाया । ‘अरे ! डायरेक्ट डायरेक्टर का फोन’ ! मैं थोड़ा सकपकाया । क्या बात हो गई – अर्थात् अपने आप में बुदबुदाया । वैसे तो कभी – कभार बात होती ही रहती थी । वर्क फ्रॉम होम में काम की जानकारी लेती रहती थी । मगर आज के इस रिंग टोन में कुछ अलग से खनक थी । शायद मेरे दिल को लग चुकी भनक थी । क्योंकि चारों तरफ रोजगार – बेरोजगार के ही चर्चे चल रहे थे । सभी देशवासी लॉकडाउन काल के चक्र में जो जल रहे थे ।
आधे घंटे बाद आंखें खुली । परन्तु , मन को इसी बातों ने जकड कर रखा था । अनगिनत प्रश्नों से हृदय तड़प रहा था । तो , आज से मैं भी उन बेरोजगार प्रवासी मजदूरों के लाइन में खड़ा था ।
फर्क बस इतना सा थी कि वे रोड पर थे , और मैं अपने किराए के मकान में पड़ा था । रोजी – रोटी उनका भी छिन लिया गया था । मुझे भी आज इन अधिकारों से वंचित करने का आदेश सुनाया गया था । बेरोजगार होने के घाव उनके भी दिल में पल रहे थे । मेरे भी ताजे जख्म सुलग रहे थे । वे भी मायूस और लाचारी के बंधन में बंधे हुए । मैं भी असहाय की बंजर जमीन पर अपने आप को पाया खड़े हुए । अर्थात् जहां एक ओर आँखों में आंसू की जगह दिल सुबक रहे थे । वहीं दूसरी तरफ बेरोजगारी की आग में मैं भी उबल रहा था ।
मेरे साथ दो और लोग हुए थे बेरोजगार । वे भी ना घर के रहे , ना घाट के , हो चुके थे बेकार । अर्थात् उनके ऊपर भी चला था बेरोजगारी का ब्रह्मास्त्र । मेरे अलावा ये दोनों भी हैं , इस कथा के पात्र । मुझे तो तब जानकारी मिली , जब फोन मिलाया । शाम के करीब छह बज रहा था । मैं बेचैन अपने आप को दिलासा दिलाने की कोशिश कर रहा था ।
एक सहकर्मी मित्र को फोन लगाया । उसके फोन की घंटी बजाया ।
हां क्या हाल – चाल है सर ?
उधर से जो आवाज आई मैं और गया डर । कुछ अच्छा नहीं है भाई , हाल बहुत गड़बड़ है। एक बहुत बुरी खबर है ।
मैंने पूछा – क्या हुआ ?
उसने बोला – ‘ जो नहीं होना था वहीं हुआ यार । अर्थात् आज से मैं भी हुआ बेरोजगार ।’
उसकी आवाजें कांप रही थी । बेरोज़गार के तीर ब्रह्मास्त्र की पीड़ा में कराह रही थी । हम दोनों एक दूसरे को संतावना देने में जुटे । अपनी – अपनी व्यथा एक – दूसरे को बांटने में लगे , जो अभी – अभी दोनों के दिल में थे फूटे ।
हमने मिलकर तय किया आज की रात शोक मना लेते हैं । कल से इस डरावने अतीत में झाँकना बंद कर देते हैं । अगले दिन सूरज के साथ मैं भी जग गया । उसके चमकदार किरणों की रौशनी अपने अँजुरियो में भर गया ।
जब वृक्ष की छंटाई होती है , तो सबसे पहले इधर – उधर बढ़े हुए टहनियों पर सामत आती है । उनके ऊपर कैंची चलाकर वृक्ष की सुंदरता आंकी जाती है । फिर, उनकी गोलाई नापी जाती है । मन उमंगों की लहर में डूब जाते हैं । मोटे – मोटे तनो को भी खूब मज़े आते हैं ।
मगर जिन टहनियों को बेरहमी से काट दिया जाता है , दरअसल छाया वही देती हैं । बदले में आफत के सारी बलाएँ अपने ऊपर ले लेती है । तेज हवाएं , कड़कती धूप , मूसलाधार बारिश से पेड़ों को वही बचाती है । मोटे – मोटे इन शाखाओं को इन बवंडरों से वही छुपाती है । बची हुई टहनियाँ अपनी सलामती के लिए दुआ कर रही है । मुँह पर मास्क पहने एक – दूसरे को टुकुर – टुकुर देख रही है । आलम ये है कि आज सारी छोटी टहनियां डरी हुई है । हमारा भी नंबर ना आ जाए थोड़ी सहमी हुई है ।
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ओमप्रकाश अमृतांशु
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व्यंग्य में ही सारी व्यथा सुना दिए। बहुत ही मार्मिक है। हिम्मत से काम लें। प्रणाम।
धन्यवाद सर ।
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