Artist -Omprakash Amritanshu
प्रवासी मजदूर होने का श्राप झेल रहे हैं हम , चिलचिलाती धूप में सड़को पर चल रहे हैं हम । हम प्रवासी कर्मभूमि को छोड़ , जन्मभूमि की और पलायन कर रहे है । हमारा क्या है ? हम श्रापित मानुष हैं । कौन चिंतित , किसे फिकर है, हम खुश या नाखुश हैं । फटेहाल जूते और चप्पलें भी साथ देने से इंकार कर गए । हम भी उन्हें छोड़ नंगे पांव आगे बढ़ गए । अब पेट की भूख तड़पा रही है , खाने को पड़ गए है लाले । कमजोर हड्डियों पर कहर बरपा रही है , कैसे जड़ दूं इनपर ताले । रोटी की जगह पुलिस के डंडे खाना मजबूरी । फटे सिर खून में सना हुआ , फिर भी दिल में सबूरी । क्योंकि मजदूर तो मजबुर होता है । जीवन भर श्राप से युक्त होता है ।
प्रवासी के संघी कौन ? सहायक कौन ? इस लॉकडाउन के संकट में हमारे लिए नायक कौन ? हम प्रवासियों की पीड़ाओं का अंत नहीं । रोम – रोम ज़ख्मों से भरा ये कथा कोई दंत नहीं । ये मजदूरों की भीड़ जो सड़कों पर रोते – बिलखते चल रही है । जेठ के भरी दोपहरी में भूखे – प्यासे तड़प रही है । जेब में पैसे नहीं कंगाली हाल बेहाल है । अपने राज्य में होता काम तो, यूँ ना होते बेहाल । हमारे जीवन में ऐसे ना आता भूचाल । सिर पर मंडरा रहा लॉकडाउन का काल है । एक ही जाति है, एक है मजदूर धर्म । अब कौन हमारे घावों पर लगाए मरहम ।
मैं लेटे – लेटे अपने लैपटॉप पर आज के समसामयिक विषय पर आर्टिकल पढ़ रहा था । जाने कब आंख लगी ? और उस नींद में जो मैंने दृश्य देखा सुना हृदय चीरने के लिए काफी है । मैं नींद में था और आज के हालात मजदूरों के दर्द से रूबरू हो रहा था । लेकिन , ये कैसे हो सकता है ? मैंने इस प्रश्न से ध्यान हटाकर दूसरे प्रश्नों की ओर लगाया । जो अभी – अभी नींद में देखा था ।
एक साथ अनगिनत कई प्रश्नों की चीख सुनाई पड़ रहे थे। मेरे कलेजे को चीथड़े – चीथड़े कर रहे थे । ये पलायन की पीड़ा कुरेद रहे थे , मेरे अंदर के भाव को । हम क्यों नहीं भर पा रहे हैं , प्रवासी मजदूरों के घाव को ? क्या ये श्राप मुक्त होंगे कभी । इनके भी पसीने सूखेंगे कभी ? इनके जीवन का चक्र ऎसे हीं चलता रहेगा ? इस तरह के कई और प्रश्नों से घिरी हुई थी हमारी आत्मा । मैं चिंतित बैठा था लाचार , अब इनकी रक्षा करे परमात्मा ।
ये जो दुःख के आंसू है साहब इनके आंखों में । भेद – भाव और नफरत वाली हवा भर रही है सांसो में । खुद मखमली जमीन पर टहल रहे हो । प्रवासियों को सड़क पर दौड़ा रहे हो । घर में AC का मजा लेते रहो और मजदूरों का तमाशा TV पर देखते रहो ।
कबतक चलेगा ये मजदूरों का संघर्ष बताओ तो जरा ? कबतक आएगी इनके जीवन में हर्ष । सड़कों पर आंसू की दरिया बह रही है , सुनो ये आपसे चीख – चीख कर कुछ कह रही है । अपने श्राप के बोझ से दबा हुआ मजदूर , कराह रहा है भारत का दस्तूर । प्रवासी बन कर भारत का निर्माण कर रहा था जो , आज वही दर – दर ठोकरें खा रहा । इनके सपने , इनकी खुशीयां सभी दफन हो गए । जो प्रवासी कोरोना Covid-19 से नहीं मरे , वे रोड पर दफन हो रहे हैं ।
दुर्भाग्यवश चुनाव का मौसम नहीं है । तभी तो मजदूरो की जेब में पैसे भी नहीं है । चुनाव होता तो ये आँसू ना होते आँखो में , प्रवासी मज़दूर होते बाँहों में ।
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ओमप्रकाश अमृतांशु
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सही बात है
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