Artist-Omprakash Amritanshu
समय के साथे-साथे आधुनिकता के रंग में रंगाईल दिवाली में बने वाला पारम्परिक माटी के घरौंदा। यानी पारम्परिक माटी के घरौंदा पर आधुनिकता के रंग चढ़ गइल। जइसन कि, परिवर्तन संसार के नियम होखेला। समय के सूई कभी ना रुके, हमेशा चलत रहेला। अइसहीं परम्परा के रंग भी नया रंग में घुलत-मिलत रहेला। समय के साथे आपन रंग-रूप में आहिस्ते-आहिस्ते बदलाव करत चलत रहेला। आधुनिकता के जामा पहिरावे खातिर पारम्परिक ज्ञान भी बहुत जरूरी बा। काहे कि कवनो सृजन शुन्य से ना होखे। घरौंदा में कवनो बदलाव नईखे भईल। बदलाव बस अतने बा कि पहिले बहिन लोग अपना हाथ से माटी के बनावत रहे।अब थर्मोकोल के बनल बनावल बाज़ार में असानी से मिल जाता। पईसा लेके जा खरिद के लिआवऽ। दिवाली मनावऽ।
सही बात बा कि थर्मोकोल – गत्ता के घरौंदा बाज़ार में आसानी से मिल जाता। माटी के बनावे के झंझट से जान बाचल। मुनिया के अबकिर बेर उहे खरिद के दे देवल जाई। ख़ुश हो जाई मुनिया। मुनिया के माई मुनिया के बाबू के चाय देत कहली।मुनिया के बाबू भी हँ में हँ मिला देलें।
फिर ऊनकर भीतर के भाव जागल। कहे लगलें- ‘बकिर, का हई बाज़ारू घरौंदा में वही भाव -ऊहे प्रेम बा ? जवन एगो बहिन के प्रेम भाई के प्रति होखेला ? जवन माटी में बहिन के नेह-प्रेम सनात रहे। फिर, ऊहे माटी आ गोबर से घरौंदा बना के लिपल जात रहे। चुना, गेरू आ निल से रंगाई होखत रहे। बाँस के दतुअन में कपड़ा लपेट के ब्रश बनावल जात रहे। फिर, माई से पईसा माँग के रंग किनात रहे। रंग में गेरू आ निल के प्रयोग कईल जात रहे। तब घरौंदा पर आपन-आपन कला के भाव उकेरल जात रहे।
यानी माटी के बनावल घरौंदा एगो नन्हा कलाकार के सम्पूर्ण कलाकृति होखत रहे। नन्हा कलाकार के कला आत्मा संतुष्ट होखत रहे। मौका मिलत रहे बचपन से हीं कला के साथे खेले के।आत्ममंथन करेके। पहिचाने के। कला से जुड़ल रहे के आ आपन संस्कृति से रूबरू होखेके। कहेके मतलब कला भाव से देखल जावऽ त कलाकारिता जीवन के पहिला सिढ़ी रहे माटी के पारम्परिक घरौंदा।’
उठ के कहली मुनिया के माई- ‘ रउरा त हर चीज़ें में कला के भाव लउके लागेला। हमरा लगे नईखे आतना समय कि राउरा के सुनत रहीं।आज दिवाली के दिन बा, बहुते काम पड़ल बा।’ झट से खलिहा चाय के कप लेके मुनिया के माई चल गईली घर के भीतरी। मुनिया के बाबू झोरा उठाके चल दिहलें बाज़ार के ओर।
कल्पना पटवारी की गायकी में असली भोजपुरिया खनक
पौराणिक मान्यता हऊए कि जब श्रीराम , लक्ष्मण आ सिताजी चउदह बरस के वनवास काट के अयोध्या अइल लोग। तब, ऊनकरा लोगन के स्वागत में अयोध्या नगरी के दिया से सजावल गइल रहे। खुब मिठाई बाँटल गइल रहे। तबहीं से घरौंदा बनाके सजावे के प्रचलन चल पड़ल। सामान्य रूप से घरौंदा के माटी से बनावट जात रहे। कुआँर लईकी लोग बनावत रहे सजावत रहे।फिर ओह छोटीचुकी घर में कुल्हिया-चुकिया भरात रहे। कुल्हिया-चुकिया में धान के लावा, मुढ़ी , बतासा आ घोड़वा-हथिया मिठाई भरेके परम्परा आजुओ बा। ताकि उनकर भाई-बाप के घर आ भंडार अईसहीं भरल-पूरल रहे। कुल्हिया-चुकिया बहिन आपन भाई के देवेली। भाई भी बदले में कुछ ना कुछ देवेलें। दिवाली लक्ष्मी-गणेश के त्योहार के साथ-साथ भाई-बहिन के अथाह प्रेम के भी परब हउए।
आधुनिकता के खेती पारम्परिक ज़मीन से शुरू होखेला। नया सृजन करे खातिर खाद-पानी परम्परा से हीं लिहल जाला। कहेके मतलब नींव पुराने रहेला, बस ओह पर घर नया बन जाला। भरतीय संस्कृति के जड़ उखाड़ फेंकल अतना संभव नईखे। भले ऊ नया रंग-रूप ले लिही बकिर हिली ना। पहिले के समय में मोमबत्ती ना रहे। आ, ना हीं बिजली। दिवाली में सिर्फ़ तेल के दिया जराके दिवाली मनावल जात रहे। फिर, मोमबत्ती भी आ गईल। अब घर के सजावे खातिर हजारों तरह के लाईटिंग बल्ब के प्रयोग कइल जात बा। लाईटिंग वाली मोमबत्ती आ दिया के भी प्रयोग गाँव-गाँव में खुब देखेके मिलता।
अईसे में घरौंदा के भी आपन रूप-रंग बदलल त कवन अचरज के बात बा। बाज़ार में दिया-मोमबत्ती के साथे-साथे घरौंदा भी मार्केट में पहुँचल। आपन जगह बनवलस। मुनिया जईसन बहिनन के होंठ पर हँसी दिहलस। बाज़ार में १०० रूपया से लेके ५०० रूपया तक के घरौंदा उपलब्ध बा।
राउर
ओमप्रकाश अमृतांशु
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